रायपुर : छतीसगढ़ की राजधानी रायपुर से बिलासपुर जाते हुए हाईवे पर करीब 60 किलोमीटर की दूरी पर है विश्रामपुर। 5-7 हजार लोगों का गांव। ऊपरी तौर पर इतना सामान्य कि शायद ही किसी की नजर जाए। प्रदेश में कम लोग ही ऐसे होंगे जिन्हें मालूम होगा कि 18वीं सदी का यह ‘द सिटी ऑफ रेस्ट’ कितना महत्वपूर्ण पड़ाव है। ईसाई समुदाय के लिए तो यह किसी तीर्थ से कम नहीं है। क्रिसमस के दिन आज इसी विश्रामपुर यानी ‘द सिटी ऑफ रेस्ट’ की बात करते हैं। छत्तीसगढ़ के कोने-कोने में फैले ईसाई धर्म की धारा यहीं से निकली है। सन 1868 में 1544 एकड़ जमीन खरीदकर रेवरं फादर ऑस्कर टी लोर ने प्रदेश की पहली मिशनरी यहां स्थापित की। घने जंगल के इस इलाके में लोगों को लाकर बसाया गया और स्कूल, हॉस्टल, अस्पताल, चमड़ा फैक्ट्री जैसे कई संस्थान बनाए। सबसे पहले लोगों को रोजगार और रहने खाने की व्यवस्था की।
फादर ऑफ विश्रामपुर
28 मार्च 1824 में जर्मनी में जन्मे ऑस्कर थियोडोर लोर के पिता सर्जन थे। उन्होंने अपने बेटे को मेडिकल की पढ़ाई के लिए पहले जर्मनी के एक कॉलेज में और फिर रूस भेज दिया। रूस में ही ऑस्कर लोर को लगा कि वो परमात्मा की सेवा के लिए इस दुनिया में आए हैं। उन्होंने बर्लिन की गॉसनर मिशनरी सोसायटी ज्वाइन की। वे पहली बार 1850 में रांची आए। 1857 तक उन्होंने यहां हिंदी सीखी, लोगों का इलाज किया, उनकी सेवा की। 1958 में वे अमेरिका चले गए। 1868 में फिर भारत लौटे। इस बार वे परिवार सहित यहीं बस जाने के लिए आए थे। उन्होंने विश्रामपुर में अपनी सेंट्रल इंडिया की मिशनरी का हेडक्वार्टर बनाया और यहीं रहने लगे। उनकी पत्नी और दो बेटे भी उनके साथ यहां से ग्रामीणों के इलाज, उन्हें भोजन, शिक्षा, रोजगार मुहैय्या कराने में जुट गए।
सबसे पहला चर्च और कब्रिस्तान :
विश्रामपुर में ही फादर लोर ने छत्तीसगढ़ के पहले चर्च की नींव रखी गई। 15 फरवरी 1873 को इम्मानुएल चर्च का निर्माण शुरू किया गया और 29 मार्च 1874 को यह बनकर तैयार हो गया। पत्थरों से बने, बिना कॉलम के बने इस चर्च की सबसे बड़ी खासियत है इससे लगा हुआ कब्रिस्तान। दूसरे स्थानों पर लोग कब्रिस्तान के पास से भी गुजरना नहीं चाहते, लेकिन यहां घूमने आते हैं। रात 11-12 बजे तक कब्रों के बीच लोगों की चहल-पहल रहती है। यहां मुख्य प्रार्थना घर और कब्रों के बीच 10-12 फीट का रास्ता बस है। आज भी यहां शव दफनाए जाते हैं। चर्च के सेक्रेटरी विकास पॉल कहते हैं कि देश में यह संभवतः पहला चर्च है जिससे लगा हुआ कब्रिस्तान है। वे कहते हैं कि फादर लोर ने ऐसा इसलिए किया कि एक ही परिसर में जीवन और मृत्यु लोगों को दिखते रहे। फादर लोर की मौत 1907 में कवर्धा में हुई, लेकिन उनका शरीर बाद में लाकर यहीं दफनाया गया। उसके बाद से इस जगह का महत्व काफी बढ़ गया।
गांव जहां 100 फीसदी आबादी ईसाई समुदाय की :
विश्रामपुर में प्रवेश के साथ ही आपको दोनों ओर के घरों में क्रास या ईसाई समाज के धर्मचिन्ह, स्लोगन लिखे दिखने लगेंगे। जब फादर लोर यहां आए थे तो इस इलाके में “सतनामी समाज” का वर्चस्व था। उन्होंने यहां के लोगों की मदद करना शुरू किया। वे मेडिकल फील्ड से थे, लिहाजा दवाएं, इलाज, भोजन, शिक्षा और दूसरी सुविधाएं देकर लोगों को प्रभाव में ले लिया। 1870 से उन्होंने धीरे-धीरे लोगों को ईसाई धर्म में शामिल करना शुरू किया। वर्तमान में इस चर्च के सेक्रेटरी विकास पॉल दावा करते हैं कि भारत में विश्रामपुर एक ऐसा अनोखा गांव है जिसकी अब 100 फीसदी ईसाई है। ये उन्हीं लोगों की पीढ़ी है जिन्हें फादर लोर ने ईसाई बनाया था।
बड़े बेटे की कुर्बानी :
डा. ऑस्कर टी लोर चर्च परिसर में ही बने बंगले में अपने परिवार सहित रहते थे। यह पूरा इलाका घना जंगल था और टाइगर जैसे कई खतरनाक जानवरों से भरा हुआ था। उनके दोनों बेटे कार्ल और जूलियस भी उनके साथ मिशनरी के सेवाकार्यों में शामिल थे। फादर लोर पर रिसर्च पेपर लिखने वाले स्कालर शिवराज सिंह महेंन्द्र लिखते हैं कि 25 अक्टूबर 1887 में कार्ल पर टाइगर ने अटैक कर दिया और उसकी और उसकी मौत हो गई। गांव में एक चर्चा आज भी है कि कार्ल को शेर उठाकर ले गया था फिर वो ना मिला ना उसकी लाश। इसके कुछ समय बाद ही उनके छोटे बेटे जूलियस की भी डिप्रेशन से मौत हो गई। भारत में पड़े भीषण अकाल के बाद उसका ब्रेक़डाउन हो गया।
बाइबिल के एक अध्याय का छत्तीसगढ़ी अनुवाद :
फादर लोर और उनके दोनों बेटों ने प्रदेश के दूसरे हिस्सों में तेजी से अपनी मिशनरी मतलब ईसाई धर्म को फैलाना शुरू किया। उन्होंने ग्रामीणों की कई तरह से मदद कर अपना प्रभाव तो जमा ही लिया था। स्कॉलर शिवराज सिंह के रिसर्च के मुताबिक जूलियस ने तो यहां के लोगों को ईसाई धर्म से जोड़ने के लिए बाइबिल के एक अध्याय गॉस्पेल ऑफ मार्क्स का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद कर दिया। फादर लोर की मिशनरी ने उस समय कितनी तेजी से छत्तीसगढ़ियों को ईसाई बनाया इसका उदाहरण है कि 1880 में जहां विश्रामपुर में 4 लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया था वहां 1883 आते-आते इनकी संख्या 258 पहुंच गई। 1884 तक विश्रामपुर के अलावा रायपुर, बैतलपुर और परसाभदर में मिशनरी के तीन सेंटर बना दिए गए। 11 स्कूल खोल दिए गए। अब तक इन सभी स्थानों पर दूसरे धर्मों से क्रिश्चियन बन चुके लोगों की संख्या 1 हजार 125 हो गई थी। 154 साल पहले विश्रामपुर से शुरू इस मिशनरी की शाखाएं गांव-गांव में हैं और लाखों लोग इससे जुड़े हैं।