रायपुर। प्राकृतिक खेती धीरे-धीरे समय की मांग बनती जा रही है. प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए केंद्र के साथ राज्य सरकार भी पूरी कोशिश कर रही है. प्राकृतिक खेती का मूल उद्देश्य कम लागत में अधिक उत्पादन के साथ किसानों की आय में वृद्धि करना है. प्राकृतिक खेती से उगाए जाने वाले फलों और सब्जियों का स्वाद ही अलग होता है, जो भी प्राकृतिक फल और सब्जियों को एक बार चख लेता है तो उसे केमिकल वाली चीजें पसंद नहीं आती।
प्राकृतिक खेती के फायदे जानने के बाद हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले के मंगल सिंह ठाकुर ने इसमें हाथ आजमाया. उन्हें बचपन से ही खेती में रुचि थी. बड़े होने पर उन्होंने अपनी आजीविका के लिए खेती को चुना. शुरुआत में उन्होंने रासायनिक खेती को अपनाया. इसमें लागत ज्यादा और मुनाफा कम हो रहा था, लेकिन लंबे समय से चली आ रही रसायन आधारित खेती को छोड़ना उनके लिए मुश्किल हो रहा था. नई तकनीक को अपनाने में बड़ा जोखिम था, तब कृषि विभाग के अधिकारियों ने उनका मार्गदर्शन किया और उन्हें प्रकृति खेती खुशहाल योजना के बारे में बताया।
प्रशिक्षण के बाद प्राकृतिक खेती शुरू की
प्राकृतिक खेती का प्रशिक्षण लेने के बाद वे घर लौट आए और पड़ोस से गाय का गोबर और गोमूत्र खरीदकर व्यापार करने लगे. इसके बाद उन्होंने अपनी 2 बीघा जमीन पर प्रायोगिक तौर पर प्राकृतिक खेती शुरू की. जब प्राकृतिक खेती के अच्छे परिणाम मिले तो उन्होंने खेती का रकबा बढ़ाकर 10 बीघा कर दिया. इसके बाद राजस्थान से साहीवाल नस्ल की एक गाय भी लाई गई।
फलों और सब्जियों की खेती
उन्होंने प्राकृतिक खेती के जरिए अनाज, सब्जियां और फल उगाए. रबी सीजन में गेहूं की बंपर पैदावार हुई थी. बिलासपुर और सोलन दोनों जिलों में बैंगन, भिंडी, लौकी और मटर की फसल की बिक्री हुई. उनका कहना है कि जो व्यक्ति एक बार उनका उत्पाद खरीद लेता है, वह खुद फोन करके ऑर्डर देता है. उनके मुताबिक पहले वे रासायनिक खेती में 40,000 रुपये खर्च कर 3,00,000 रुपये कमाते थे. प्राकृतिक खेती अपनाने के बाद अब रु. रुपये के निवेश से 5,00,000 कमाए जाते हैं 10,000. उनकी कहानी को हिमाचल प्रदेश के कृषि विभाग ने प्रकाशित किया है।