मेहमान संपादक/इन्दू गोधवानी : यह ऐतिहासिक तथ्य है कि वैश्व़िक सिन्धी समुदाय हिन्दू धर्म की सामाजिक धारा का एक हिस्सा था, इसलिए सिन्धियों और अन्य हिन्दूओं के बीच बहुत सी समान रीति-रिवाज, परंपराएं और त्योहार है। होली रंगों का त्योहार है। रंगों का यह पर्व पारंपरिक रुप से दो दिवस धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। प्रथम दिवस को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। द्वितीय दिवस, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी या धूलिवंदन इसके नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं।
राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। इस दिन से फाग गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रुढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। लोग एक दूसरे के घर होली मिलन के लिए जाते है जहां उनका स्वागत गुझिया, नमकीन व ठंडाई से किया जाता है।
पौराणिक मान्यताओं में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से फाल्गुन पूर्णिमा तक के समय को होलाष्टक माना जाता है, जिसमें शुभ कार्य वर्जित रहते हैं, इसी क्रम में पूर्णिमा के दिन होलिका-दहन किया जाता है, जिसके उपरांत अगले दिन रंगों का त्योहार होली मनाने का विधान है। शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु के अनन्य भक्त प्रहलाद की प्रभु भक्ति से क्रोधित होकर उसके पिता हिरणकश्यप ने अपनी बहन होलिका जिसे अग्नि से अमरता प्राप्त थी को प्रहलाद को गोद मे लेकर अग्नि में बैठने का आदेश दिया गया। प्रभुभक्ति में लीन प्रहलाद मुस्कुराते हुए होलिका की गोद में बैठे और फिर हिरणकश्यप के आदेश पर अग्नि प्रज्वलित कर दी गई, थोड़ी देर में लोगों ने अग्नि के कोप में झुलस रही होलिका की चीत्कार सुनी जो उसमे भस्म हुई और प्रहलाद सुरक्षित अग्नि से बाहर निकल आए।
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मान्यता है कि तब से लेकर आज तक बुराई पर अच्छाई की जीत के रुप में, हिन्दू धर्म में प्रति वर्ष प्रतीकात्मक स्वरुप फाल्गुन पूर्णिमा को होलिका दहन की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। सिन्धी समाज और होली रंगों के त्योहार को खास तरीके से मनाता है सिन्धी समाज। सिन्धी व्यंजनों की सर्वोत्कृष्ट होली मिठाइयाँ सिन्धी समाज के लिए रंगों के त्यौहार का प्रतिनिधित्व करती हैं! घिहर एक बड़े आकार की जलेबी जैसी आकृति की मिठाई है। जिसे मैदा के घोल से बनाया जाता है, तत्पश्च़ात उसे तला जाता है और चाशनी में डुबोया जाता है। घिहर मिठाई के बिना अधूरी है सिन्धी समाज की होली। परंपरा है कि घिहर मिठाई के बिना होली त्योहार को अधूरा मानते हैं सिन्धी समाज के लोग। ये परंपरा सिन्ध के समय से चली आ रही है।
सिन्धी समाज में होली का त्योहार रंगों के साथ-साथ मिठाइयों के साथ मनाया जाता है। होलिका दहन के दिन घिहर जैसी मिठाइयां बनाई जाती हैं। सिन्धी समाज में होली की तैयारियां फागुन महीने से ही शुरु हो जाती हैं। होलिका दहन के दिन आटे की मोटी रोटी बनाई जाती है, जिसे रोट कहा जाता है। सिन्धी समाज में होली के दिन रंग-गुलाल लगाकर, घिहर खिलाकर एक-दूसरे को मुंह मीठा कराया जाता है। होली पर सिन्धी समाज के लोग अपनी बहनों और बेटियों के घर घिहर मिठाई भिजवाते है, जिसे होली का डि्ण कहा जाता है। होलिका दहन के दिन गाय के सूखे हुए उपोलो (छेणों) से घर के आंगन अथवा बगिया में छोटी होलिका बनाई जाती है।
होलिका दहन अलाव जलाने के जैसा ही अलाव का त्यौहार है। यह त्योहार सर्दियों के मौसम के अंत को भी चिंहित करता है। यह पश्च़िमी दुनिया के शिविर की आग जैसा होता है। सिन्धी समाज की महिलाएं एवं परिवार के सभी सदस्य इस अग्नि के चारों ओर परिक्रमा करते है। इस त्योहार का उद्द़ेश्य पुरानी चीजों से छुटकारा पाना और मन को शुद्ध करना है। इस दौरान रात्रि में सर्वप्रथम समाज के पंडित जी अथवा पंडित जी की अनुपस्थिति में समाज के किसी भी बुजुर्ग सदस्य या किसी भी गणमान्य नागरिक द्वारा दीप प्रज्वलन कर आरती से कार्यक्रम की शुरुआत की जाती है। तत्पश्च़ात विधि-विधान पूर्वक पूजा अर्चना कर उन पवित्र अग्नि से “होलिका” को प्रज्जवलित किया जाता है एवं उसमें नारियल तथा अन्य मिष्ठान इत्यादि को अर्पित किया जाता है एवं कुछ महिलाएं मनोकामना पूर्ण होने पर पवित्र अग्नि में नारियल चढ़ाती हैं और प्रसाद ‘सेसा’ इत्यादि का भी वितरण करती है। विवाह करने वाले नवविवाहित जोड़ों, माता-पिता के साथ नवजात शिशुओं द्वारा “होलिका” की परिक्रमा की जाती है। सभी लोग उस पवित्र अग्नि की परिक्रमा करते हुए फेरे लेते है तत्पश्च़ात पल्लव में सभी परिवारों तथा सम्पूर्ण समाज के लिए सुख-शांति एवं धन-धान्य तथा समृद्धि की प्रार्थना की जाती है। प्रसाद इत्यादि वितरित किया जाता है। समाज के सभी सदस्य मिलकर नाचते गाते हुए सिन्धी लोक नृत्य छेज् किया जाता है और आनंद मनाया जाता है।
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होलिका और प्रहलाद मन की दो स्थितियाँ है
“मैं सर्वज्ञ-सर्वशक्तिमान हूँ”
ये एक भ्रम है, और भ्रम के हिस्से में
कल भी राख थी, आज भी राख है।
‘विनम्रता’ और ‘सीखने का भाव’
कल भी ‘कवच’ थे, और आज भी ‘कवच’ है!
अपना ‘कवच’ पहनिये
और ‘संघर्षों’ की ‘अग्नि’ से
‘कुन्दन’ बनकर निकलिए!!
होलिका की अग्नि में विगत वर्ष के..दुख..दर्द और कटु-अनुभव जलाओ..खुशी और उमंग के साथ होली मनाओ..आपके जीवन के सारे कष्ट दुख दर्द होलिका दहन में जलकर राख हो जाए और आपके जीवन में खुशियाँ ही खुशियाँ हो।
आप सभी को होली के त्यौहार की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ..!!



