इन्दू गोधवानी/मेहमान सम्पादक : भारतीय संस्कृति विविधता में एकता की है। जिसमें जीव-जन्तु, वृक्ष-वनस्पति सब के साथ एकात्म की अनुभूति की परम्परा है। नाग पंचमी का पर्व प्रकृति के साथ हमारे इसी भाव का प्रतीक है। जो मनुष्य को अपने दंश से यमपुरी पहुँचा देने में समर्थ है, ऐसे सर्प के प्रति भी मानव के चित्त में द्वेष न रहे। मनुष्य उससे डरे नहीं, वरन् भय तथा द्वेष जिस प्रभु की सत्ता से दिखते है, वही प्रभु सर्प में भी है, इस भावना से नागपंचमी के दिन नाग की पूजा करें। यह उत्सव प्रकृति-प्रेम को उजागर करता है। हमारी भारतीय संस्कृति हिंसक प्राणियों में भी अपना आत्मदेव निहारकर सदभाव रखने की प्रेरणा देती है। नागपंचमी का यह उत्सव नागों की पूजा तथा स्तुति द्वारा नागों के प्रति नफरत व भय को आत्मिक प्रेम व निर्भयता में परिणत करने का संदेश देता है ।
भगवान शिव के श्रृंगार ‘नागदेव’ की पूजा के साथ ही ‘शारीरिक सौष्ठव (कुश्ती)’ के लिए प्रख्यात आज श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि है। आज का दिन नागपंचमी के रुप में मनाया जाता है। सावन में नागपंचमी के पर्व का विशेष महत्व है। इस दिन अष्टनागों की पूजा का विधान है। सावन और नाग दोनों शिव के बहुत प्रिय माने जाते हैं। वासुकी नाग भगवान शिव के गले का श्रृंगार हैं। नाग पंचमी पर वासुकी नाग सहित अनन्त, पद्म, महापद्म, तक्षक, कुलीर, कर्कट, शंख, कालिया और पिंगल नामक देव नागों की पूजा की जाती है।
नाग पंचमी पर नाग देवता और भगवान शिव की एक साथ पूजा कर कालसर्प दोष का निवारण भी किया जा सकता है। मान्यता है कि इस दिन नाग देवता की विधिवत पूजा करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं। हर साल सावन शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि को नागपंचमी का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन भगवान शिव का जलाभिषेक करना अत्यंत ही लाभकारी माना गया है।
कहते हैं कि नागपंचमी के ही दिन भगवान श्री कृष्ण ने कालिया नाग का मर्दन किया था और तभी से आज के दिन विशेष पारंपरिक रुप में श्री कृष्ण की कालिया नाग पर विजय के प्रतीक में कुश्ती प्रतियोगिता आयोजित की जाती है। भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ तालमेल बैठाने और सभी जीवों के प्रति दया और करुणा की भावना को बढ़ावा देने के लिए कई अनूठी व्यवस्थाएं की गई हैं। इनमें से एक महत्वपूर्ण व्यवस्था है भोजन और पानी को सभी जीवों तक पहुंचाने की व्यवस्था। भोजन को पहले देवताओं को अर्पित करने के बाद, गाय, कुत्ते और चींटी के लिए निकालने की परंपरा है।
पानी को पहले सूर्य देवता को अर्पित करने के बाद, पक्षियों और अन्य जीवों के लिए रखने की परंपरा है। भारतीय परंपरा में भोजन को सभी जीवों के साथ बांटने की भावना होती है। इन व्यवस्थाओं के माध्यम से हमारा सनातन धर्म हमें प्रकृति और सभी जीवों के साथ जुड़ने और उनका सम्मान करने की प्रेरणा प्रदान करता है। यह हमें दया, करुणा और सहयोग की भावना को बढ़ावा देता है। हमारी भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ तालमेल बैठाने के लिए धरती आकाश सहित सभी जीव जंतुओं तक भोजन पानी पहुँचाने को ध्यान में रखकर अनूठी व्यवस्था की गई है। जिसे ध्यान में रखकर त्योहारों को मनाया जाता है।
मनुष्य के अलावा जितने भी प्राणी है, उन्हें भी जीने का हक है। नागपंचमी के उत्सव से सर्पों में भी भगवान को देखने की प्रेरणा मिलती है। विषधर ऐसे ही किसी को नही काट लेता है। जब उसको कोई सताता है, परेशान करता है अथवा जब विषधर अपने प्राण खतरे में महसूस करता है तब वह अपना बनाया हुआ विष प्राण सुरक्षा के लिए खर्च करता है।
नागपंचमी के इस पर्व से हमें यहा शिक्षा मिलती है कि द्वेषावतार साँप के प्रति भी नागपंचमी के दिवस को निमित्त बनाकर प्रेम और सहानुभुति रखते हुए उसकी पूजा करने से विषधर के चित्त का द्वेष शांत होता है। यह हमारे सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति की सुंदर व्यवस्था है।
सिन्धी समाज और नागपंचमी (गोगड़ो) :
सिन्धी परिवारों में महिलाओं द्वारा गोगड़ो पर्व परंपरागत तरीके से मनाया जाता है। सिन्धी समाज में गोगडों नागपंचमी पर्व पर सिंधी समाज व्दारा धार्मिक परंपराओं को मानते हुये गर्म भोजन नहीं पकाया जाता है। बल्कि एक दिन पूर्व पकाया हुआ ठंडा भोजन खाया जाता है। पर्व के एक दिन पूर्व ही रात को मिठ्ठो लोलो (गुड़ की मीठी रोटी), चेहरी कोकी (नमकीन बेसन रोटी), रोटी पराठा, रायता अन्य प्रकार की सब्जियां जिसमें करेला, सरसों का साग, मूली का साग, भिंडी आलू की सब्जी बनाई जाती है। फिर चूल्हे को परिवार के सभी सदस्यों के द्वारा एकत्रित होकर रुमाल से सिर को ढंक कर एक कटोरी में कच्चा दूध और चावल मिलाकर छंड्ड़ा लगाया जाता है और चूल्हा ठंडा किया जाता है आजकल के आधुनिक युग में गैस चूल्हे पर तवा को छंड्ड़ा लगाकर ठंडा किया जाता है। और फिर यह खाना दूसरे दिन गोगड़ों पर्व के दिन खाया जाता है।
नागपंचमी गोगड़ो के दिन सिन्धी परिवारों की महिलाओं द्वारा सांप की बांबी या बबूल के पेड़ों अथवा जलाशयों, हैंड पंपों, नलों, वृक्षों पर जाकर पूजा की जाती है और परिवार के सदस्यों की खुशहाली और निरोगी रहने की कामना की जाती है। ऐसी मान्यता है कि गोगड़ो पर्व पर पूजा-अर्चना करने से घर परिवार में सुख-शांति और समृद्धि बनी रहती है। गोगड़ो पर ठंडा खाने की सामाजिक परंपरा वर्तमान आधुनिक युग में धीरे धीरे कमजोर होती जा रही है और अब ज्यादातर घरों में शाम के समय गरम भोजन बनाया जाने लगा है। बुजुर्ग महिलाएँ अवश्य ठंडा खाना ही खाती है। लेकिन युवा पीढ़ी एक दिन पहले बना हुआ खाना खाने के नियम को धीर-धीरे कम करने लगी है। पर्व पर पूजा-अर्चना से जुड़ने में नई पीढ़ी में उदासीनता भी देखी जा रही है।
कालांतर में सनातनी सिन्धी समाज विभिन्न पंथों में विभक्त होने तथा नई पीढ़ी की त्योहारों के प्रति हीन भावना की मानसिकता व उदासीनता के कारण हमारा यह सांस्कृतिक गोग्या त्यौहार विलुप्तता की कगार पर है। और कई पंथों से जुड़े हुए बहुत सारे सिन्धी समाज के लोग धीरे-धीरे इन त्योहारों को मनाना छोड़ दिए है।
जबकि हमारे सिन्धी समाज में इससे सम्बन्धित नुख, यथा नागदेव, गोगिया, नागवानी आदि विद्यमान है और सिन्धी समाज के लोगों द्वारा इसे सरनेम के बतौर इस्तेमाल भी किया जाता है। सिन्धी समाज में सिन्ध से गोगड़ा पर्व मनाने की परंपरा चली आ रही है। इस दिन नागेश्व़र भगवान भोलेनाथ एवँ माता शीतला की पूजा की जाती है। सिन्धी समाज की महिलाएँ मंदिर में जाकर नागदेवता की पूजा-अर्चना करती है और आखड़ी-टिकड़ी (टिकडी-मीठी कोकी के लोले के लिए गूंथे हुए आटे से बनती है, जो कि बेहद ही छोटी सी आंखों के आकार की होती है।) को आंखों एवं होंठों से लगाकर (आखिडियूँ , टिकिडियूँ घुमाईब्यूँ आहिन आखिडियूँन ते) घर परिवार में सदस्यों को निरोग रखने की कामना की जाती है।
साथ ही ठंडें भोजन की प्रसादी नदी तालाब में ले जाकर प्रवाहित कर पूजा अर्चना कर तालाब अथवा नदी का पवित्र जल को घर लाकर सभी सदस्यों एवँ घर में छिडकाव किया जाता है। मान्यता है कि छंड्ड़ा लगाने से दुख, दर्द दूर हो जाते हैं। भगवान झूलेलाल से सभी की खुशहाली के लिए प्रार्थना की जाती है। परिवार की बुजुर्ग महिलाएँ सभी को आशीर्वाद देती हैं। सिन्धी समाज के द्वारा यह पर्व श्रद्धा-भक्ति के साथ मनाया जाता है।



