मुर्गों की खतरनाक लड़ाई में करोड़ों का खेल और 20 सेकण्ड में तुरंत भुगतान, तेलंगाना, आंध्र और ओडिशा से आते हैं दांव लगाने।

रायपुर/बस्तर : मुर्गों की लड़ाई देशभर में होती है, कई जगह यह लड़ाई ग्रामीण संस्कृति का हिस्सा है लेकिन बस्तर की मुर्गा लड़ाई की बात ही कुछ खास है। खास इसलिए क्योंकि यहां रोज मुर्गा लड़ाई में एक – एक करोड़ रुपए के दांव लग रहे हैं। मनोरंजन का यह खेल बस्तर से आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा में भी लोकप्रिय है। वहां से बड़ी संख्या में कारोबारी यहां आकर दांव लगा रहे हैं। यहाँ इस कार्यक्रम में काफी भीड़ एकत्रित होती है। यह खेल किसी एक मुर्गे के मारे जाने या बुरी तरह घायल होने तक जारी रहता है। इसके लिए लगभग 20 – 22 फुट का एक खास घेरा बनाया जाता है। इसी घेरे में दो मुर्गे के बीच होती है खूनी जंग। जहां यह खेल होता है उसे मुर्गा पाड़ा कहते हैं।

जीतने पर रकम 10 से 30 सेकंड में दोगुनी हो रही है तथा मौके पर ही ऑनटाइम पेमेंट हो रहा है। बस्तर के जिन बाजारों में लड़ाई हो रही है, वहां इसे देखने के लिए 2 हजार से लेकर 10 हजार तक लोग पहुंच रहे हैं।

यहां भी लाखों के दांव लगते है :

लल्लीगांव, चित्रकोट रोड (सोमवार)। मरईगुड़ा, आंध्र-छत्तीसगढ़-तेलंगाना की बॉर्डर का गांव। (मंगलवार, गुरुवार, रविवार)। पाकेला, सुकमा रोड (शनिवार)। तुमनार, बीजापुर (शनिवार)। करकापाल (शनिवार)। मारपाल (शुक्रवार)। गीदम (रविवार)। जगलपुर (सप्ताह में 2 दिन।)

मनोरंजन के लिए पशु, पक्षियों, जानवरों का इस्तेमाल : इतिहास में और मौजूदा वक्त पर मनोरंजन के लिए पशु, पक्षियों और जानवरों का इस्तेमाल होता आ रहा है। मुर्गा लड़ाई (तमिलनाडू के तिरुप्पुर और कोयंबटुर, आंध्रप्रदेश के करेमपुडी में, कर्नाटक के उडुपी में, केरला के कासरगोड में, झारखंड के टूसी मेले में, छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में), जली कट्टू (तमिलनाडू में सांड़ और इंसान के बीच का खेल), बुलफाइटिंग (सांडो की लड़ाई), कंबाला (भैंसों की दौड़), भालू नाच,बंदर नाच और सर्कस में जानवरों का उपयोग सदियों से होता आ रहा है। यहाँ भी मनोरंजन के नाम पर खेला जाता है, जिसपे करोड़ों रुपये ताल दांव में लगते है।

दांव लगाने वाले आते हैं तीन – तीन सौ किमी दूर से :

रविवार को दोपहर 3 बजे जगदलपुर से करीब 80 किमी दूर गीदम के साप्ताहिक बाजार के ठीक सामने बड़े मैदान पर मुर्गा लड़ाई होने वाली थी। हाट-बाजार से ज्यादा भीड़ वहीं थी, करीब 8 हजार लोग होंगे। मुर्गा गाली (अखाड़ा) में जगह नहीं मिली, तो लोग पेड़ पर चढ़ गए। वहां अलग-अलग झुंड में लड़ने वाले मुर्गों की जोड़ियां बन रही थीं। इसके लिए मुर्गा मालिक वजन और मुर्गे की किस्म को देख रहे थे। दांव वहीं लग रहे थे, 20 से 50 हजार तक। 25 जोड़े लड़ाई के लिए तैयार हुए। मुर्गा गाली में बड़े कारोबारियों के लिए कुर्सियां थीं, जिनपर बैठने का रेट 500 रुपए था। पहले सर्किल का टिकट 100 रुपए और बाहर का सर्किल नि:शुल्क। गाली में 2 मुर्गे जैसे ही पहुंचे, दांव लगने शुरू हो गए। मुर्गों का नाम लेकर सपोर्ट किया जाने लगा लेकिन 20 सेकंड में खामोशी…। पता चला एक मुर्गा मारा गया…। जीतने वाले व्यापारी को 50 हजार रुपए और मरा मुर्गा मिला। लोगों ने बताया कि शाम होते-होते 40 लाख रुपए का दांव लग जाएगा। यह दांव एक दिन में करोड़ों रुपये का आंकड़ा पार कर जाता है।

मुर्गा लड़ाई में इस्तेमाल शब्दों के अर्थ :

लड़ाई का प्रचलित नाम – कुकड़ा गाली। लड़ाई की जगह- मुर्गा गाली(अखाड़ा)। मुर्गों के पैर में बांधा गया हथियार – काती।

मुर्गे में चाकू फंसाने और इलाज करने वालों के अलग स्टॉल

लड़ाई के पहले मुर्गे के दाएं पैर में चाकू लगाया जाता है। चाकू लगाने वालों के लिए अलग से चौपाल लगी होती है।

घायल मुर्गे का इलाज, टांका लगाने के लिए अलग चौपाल। ये 100 रुपए में ही मुर्गे का पूरा उपचार कर देते हैं। हालाँकि यह पशु क्रूरता के अधीन आता है, लेकिन यह खेल इतना मनोरंजक होता है की लोग इसे देखने के लिये भारी मात्रा में इकट्ठे हो जाते है।